अँधेरी रात में वो गगनचुंबी पहाड़,
पहाड़ पे घर।
हर घर में बिंदी-बिंदी बत्तियाँ
और उस में से एक तिमंज़िली इमारत में,
एक कमरा मेरा भी।
शौख हो कुछ ख़ूब जो कि यू नदारद हो
आसमा को छू लूँ जैसे मैं इनका प्रचारक हूँ।
और थमती ही नहीं ख़ुशबू पवन के संग-संग
जैसे मैं इनका और ये मेरा कारक हों।
ऐसा लगता है कि जैसे मैं धरातल पर, आसमा कंधे पर है और आँख में काजल।
भूल मैंने की नहीं यू तो नशे में भी कभी फिर न जाने कैसे भुला जिंदगी की वो कड़ी।
फिर एक मुलाक़ात में क्या ख़ूब नज़राना मिला, ना पुष्प, न कोकिल की कूक पर अफ़साना लिखा।
पर्वत पे घर, घर में जन-ज़िन्दगी में ज़माना दिखा।
बड़े शहरों वाली अट्टालिकाएँ यहाँ नहीं होती।
पर्वत ख़ुद अट्टालिका बना हुआ है जहाँ,
बौना हर शहर की बड़ी मकान है यहाँ।
मुझे वो याद रहेगी तकते पर्वत को दिन ओ रात
बादलों में घुसते और निकलते इन पर्वतों से मुलाक़ात
मेरा ही क़द न छोटा हो जाये, इसलिए हम शिखर तक जाएँगे,
एक शिखर से दूसरे पर्वत को पास बुलाएँगे।
Author – Prabhat Kumar