Happy Father’s Day Poem – पिता का घर

ssrपिता का घर मेरे घर से अलग क्यों है,
जब अपनों का सहारा ना हो तब एक घर तो है।
जब पंख थे मेरे भर दी उड़ान सारी दुनिया में,
फिरसे दुनिया सिमट गई, आए कदम घर पे हैं ।।

पिता का घर मेरे घर से अलग क्यों है,
चाहतें हैं ऊँची, उड़ान हर शिख़र तक करना है।
पापा का छोटा सा घर मेरे लिए सहर सा है।
हर थकान दूर होती है यहाँ, ये एक नहर सा है।
दिवाली, दसहारा और होली की धूम होती है यहाँ,
सभी लोगों की मेल की कुण्डली बनती है यहाँ!
पापा आज भी सभी फ़ैसले निर्भीक होकर लेते हैं,
मेरी निजी शर्तें थोड़ी नरम पड़ जाती है यहाँ
पर मुकम्मल हर ख़्वाब है – जैसे शीतल हवा है यहाँ
परामर्श हर बात पे मिलती है, जैसे मैं अब भी बच्चा हूँ।
नहीं हुआ तो क्या? उनके लिए तो कच्चा हूँ।

पिता का घर मेरे घर से अलग क्यों है?
उसी क़ानून में मै फिर से प्रभात बनता हूँ।
हार चुका हूँ रण और वहाँ विश्राम करता हूँ।
पिता का घर मेरे घर से इसलिए अलग है,
ज़िंदगी के सौ रंग हैं और ये अनमोल घर है।

Author: Prabhat Kumar

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