कैम्पस न्युक्ति की कहानी

“खुद ही को कर बुलन्द इतना कि हर तक्दीर से पहले
खूदा खुद बंदे से पूछे बता तेरी रजा क्या है… “
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वर्षों गुजार डाला फ़क्र है हमें
और आज भी हम इत्मिनान से हैं।
चंद ही दिनों मे धरती सरकने को है
पर हम तो अभी से ही चाँद पर हैं।
*
चार वर्षों की कश्मकस और लड़ाई
तब जाकर मिलती है डिग्री-सी मिठाई
किन्तु इससे पहले होता है दौरा उनका
किस्मत अपनी रूप संवारे, आइना किसका?
*
जी हाँ, यह कैम्पस न्युक्ति की कहानी है
जिसमें कोई राजा नहीं, न कोई रानी है।
हम छात्रों का भविष्य पल-पल डगमगाए
तो शिक्षक कहते-“जौब नहीं बेटे तो आगे भी पढ़ाई है”।
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अब अपनी-अपनी सोच, अपना-अपना फैसला
कितने प्रमानपत्र और कितना हौसला
अंग्रेजी का विशेष ज्ञान, वार्तालाप के लिए
क्या है मूल मंत्र साक्षात्कार के लिए?
*
मंत्र तो हजार हैं जब आप ही बिमार हैं,
मगर हम बताते हैं नुस्ख गर आप लाचार हैं।
जीने के दो जरिए और मरने के चार हैं
और सफल सीनियर्स ही आज सलाहकार हैं।
*
सुबह से शाम तक बस चलते रहो तुम…
रोशनी का साथ हो तो किंचित गीरो न तुम।
मगर जब मंजिल के बाद होती शुरू सफर
पथ तब भी होती है बस आती नहीं नजर।
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सुबह सौन्दर्य सरिखे है, फुल किरणों से तार-तार
मुढ-मुर्क्षित भी सजग हों तो कर लेते हैं नैया पार
पर अपनी सम्मा तो बस जुगनु से जलती है
क्या पता अंत किधर और कहाँ धार बहती है।
*
फिर भी एक आस होती है, कंठों में प्यास होती है
रास्ता ढूंढ ही लेगें हम जो सुक्ष्म प्रकाश होती है।
चार वर्ष यूं ही गंवाया नहीं, कुछ पाया भी है..
ठोकरें खाते रहे किन्तु पग को जमाया भी है।
*
वो पल जिन्दगी के स्वर्णिम पहर थे
अहो भाग्य मेरे! ये कैसी लहर है।
समय की अदाओं पे ढलने लगे जो
अपनी शरारत के फिके शिखर हैं।
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शरारत शराफ़त नज़ाकत सभी थे
दिल जो लगाए तो सब कुछ वही थे।
जीने का जरिया वही हो चले तो,
उनकी गुजारिस में गमगीन भी थे।
*
मगर सिख इससे भी मिलती रही है
समय गर सही है तो सबकुछ सही है
वरन शाख कितनी भी मजबूत क्यों न
आंधी चली है तो वह भी गिरी है।
*
गिर के उठे जो तो लहरों सरिखे
उठ न सके तो गिर-गिर के सिखें
मगर सिखना है हमारी जरूरत
जीकर भी सिखें और मरकर भी सिखें।
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सिखा यहाँ कुछ तो बस जिन्दगानी
नियमों की सीमा पर बस मनमानी
संयम अगर हो तो नियमों की चलती
मगर जोश आए तो नियमें पिघलती।
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पिघती नहीं साथ नियमें निरंतर
तो मुश्किल में होता था अपना भी जंतर
अगर जीत जाए प्रबंधन जो हम से
हमें फ़क्र होता- जंग थी अपनी उन से।
*
जमाने के कातिल बनाए हुए हम
हंसते-हंसते गमों को समाए हुए हम
हम से मिलते गए वो मिलाते गए हम
नज़रों से पीते पिलाते रहे हम।
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मगर आज फिर से है धुमिल सितारे
कहो कौन पूछे हमें आज प्यारे
आज चहके हैं पंछी फुल खिलते हैं सारे
मगर कौन आज अपनी किस्मत सँवारे?
*
रातों मे तुफ़ां तो उठते रही है
दिन के उजाले मे थम भी गई है
थमना भी है अब हमारी जरूरत
जमीं आसमां में दिखेगी जो सुरत।
*
सुरत हमारी लिखे वो कहानी
किताबों के पन्नों मे जलती जवानी
प्रमानों के पत्रों से खुशबु की आशा
ज्ञान की गंगा में बहती दिलासा

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खुशबू भी वो जो कि गमके गगन में
फुलों से महके और बहके पवन में…
बहकते थीरकते हवाओं से कहते
फैली है खुशबू अब सबके मन में।
*
नहीं एक शब्दों की बोली चले अब
खुशबू से प्रतिभा झलकने लगी है
वर्षों की मेहनत को वो भांप लेंगे
महफिल में अब रंग जमने लगी है।
*
एकत्रित प्रमानों की पत्रों की ढेरी
उन सुर्खियों में ही अपनी तिजोरी।
हर सुर्खी मे वर्णित अपनी कहानी
शरारत के पन्नों की है क्या निशानी?
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मगर वेशभूषा भी एक आवश्यक फ़रमान है
आप सुन्दर व आकर्षक हैं तो बड़ा ही मान है
व्यवहार में सदाचार हो तो आपका कल्यान है
और मेहनती छात्रों के लिए इनाम ही इनाम है।
*
अंदर की रौनक से जब खिलखिलाते हों आप
तजुर्बा की खातिर जब बची न हो कोई शाख
Electives अगर हों आपके अपने ही हाथ…
तो कल आपका है अन्यत्र सब बकवास।
*
नौकरी उनका नहीं जो नौकरशाही में अटके हैं
यह उनका है जो अपने कर्म ग्रंथ से महके हैं
ज्ञान और विज्ञान रूपी नौका में तरते हुए…
वे स्वच्छ भाव से अध्यायों की पूर्ति करते हैं।
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इससे पहले की आगे एक कदम भी बढ़ाऊ
पहले एक छोटा सा संक्षेप दे जाऊं।
जिस भी पुस्तक का मैं अध्याय सम्भालुं
अंततः उसका संपादक बन जाऊं!
*
जी हाँ! पुस्तक का शीर्षक यदि कम्पनी का नाम है
तो पुरी की पुरी पुस्तक एक कम्पनी समान है।
नौकरी, नौकरी नहीं किसी अध्याय का भाव है…
और हमारी सेवा इसके लिए नया पड़ाव है।
*
पुस्तक का लेखक हीं कम्पनी का निर्देशक है
और भिन्न-भिन्न अध्याय पर हमें एक ऑफर है
कालेज में प्रशिक्षित होते हैं हम युवा राइटर
क्या हम लिख पाएंगे पूछे गए प्रश्नों के उत्तर?
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Author: Prabhat Kumar

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