जीवन एक किनारा है या एक समंदर का दर्पण

जीवन एक किनारा है या एक समंदर का दर्पण 
पल में रंग में रंग जाते जाने कइअक प्यासे गण!
कुछ तुम से, कुछ हम से, कुछ इन दीवारों से,
महक उठी है लीला अपनी पनघट के फौवारों से। 

मुझको कोई मोह नहीं, काव्य कृत्य काव्यालय से 
बिक सकता है अपना बोल किसी मर्म के प्याले से
मुझसे कोई आश न रखना, मैं बंजर हूँ, मैं बंजारा!
मुझ पर रख ली आश जो तो मैं उर्वर हूँ, मैं संसारा!!

भुला नहीं में अपनी बस्ती, ना भुला अरमानों को 
मटकी में जो घोल रखी है नेक बुलंद इरादों को 
कोई समझे नीले नयन से मेरा ह्रदय एक सागर है 
कोई समझे नदी की भांति, कोई समझे गागर है!

चिंतामुक्त गर हुआ कभी तो चिंता इसकी होती थी 
कौन कौन से तोडूं रिस्ता, भक्ति कभी न खोती थी।
सबकी अपनी–अपनी बस्ती, मेरा एक व्यापार है… 
क्या जमीं, क्या आसमान, कंधे पर अथाह भार है।

Author: Prabhat Kumar

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