आजादी का स्वप्न

कल रात मीठी नींद में आजादी का वो स्वप्न देखा
मैं रहूँ आबाद जैसे दिए में हो आग, हर पल जश्न देखा
मैंने ये देखा कि मैं हर कैद से आजाद हूं…
वक्त मेरे हाथ में है, मैं खुद में जिन्दाबाद हूं।

अब कोई कानून क्या और क्या कोई रश्मों-रिवाज
दिल में हलचल हो रही कानून बनते अपने आप।
जितनी भी थी पाबंदियाँ वो आज नजरबन्द हैं…
या यों कहो मेरी निगाहों में मेरी पाबंद हैं।

मुल्क अपना कौम अपनी और सब अपने मुकाम
आज करना है मुझे आजादियों का एहतिराम…
आज दुनिया कुछ कहे करना नहीं खाना खराब
बैठ कर पीना मुझे है आज बस केवल शराब।

कालेज की हो कैन्टीन या रेलगाड़ी का सफर
जब पाक हों अपने इरादे बेखौफ़ होती हर डगर।
कचड़ा बिछा दूँ हर तरफ़ जब सामने हो कुड़ादान
कैसी शिकायत? आज अपनी मर्जी की बजती है तान…

लाल बत्ती पर मियाँ बढ़ती मेरी रफ़्तार है…
हरी बत्ती जलते रहती आज अपनी यार है।
आज ट्रैफिक पर चलुं यों जैसे मैं हूं बेमिसाल
और कोई रोक के मुझको ये उसकी मजाल?

हर ख़रीददारी पर लेता एक मन चाहा इनाम
गैर मतलब बात है कि सैकड़ों में उसके दाम।
पोस्ट-पेड मोबाइल पर मैं बातें करता पूरी शाम
पैसे कटते राम जाने किस भले मानुष के नाम।

आज अपनी जिन्दगी बस चल रही डालर के दाम
टाटा बिरला का नहीं यह कोई राशन दुकान।
हर गली कूजे में अपनी हो रही अब शोर है
अपनी किस्मत देखकर अब नाचता भी मोर है।

सात बजते ही बजी क्या घन्टी मेरे जश्न की
एलार्म वाले क्लाक से तब चींखती है मोरनी।
ख्वाब अब तो रूठती और अपनी किस्मत फुटती
दिल लुभा हो आपका तो कुछ तो कहिए मुफ़्त की।

Note: Initial few lines are prototype of a known urdu poetry
Author- Prabhat Kumar

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