गुनगुनाती थी पहर और सतह भी ठोस थी
निहारती थी नजर, और पलक पर ओस थी
कुछ वाद न विवाद था कैसा गजब संवाद था
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से – अग्नि पर प्रह्लाद था।।
जिंदगी के मायने कैसे न जाने खो गए,
एक तलब जो मिल लिए फिर से बेगाने हो गए।
वो तन्हा थी, जो शाम थी, अजीब थी
मिला तो था मगर वो दोस्त थी, रक़ीब थी ?
— प्रभात कुमार