मेरी अभिलाशा


जीवन
में निराशा आती है
जब बीते पल इठलाते हैं…
अतीत के पन्नों को उधेड़
जब दिल में दर्द जगाते हैं।

*


मेरी
अभिलाशा कैसी होगी
यह प्रश्न ही था कोइ क्या जाने….
फिर जाने कैसे वो आई…
इठलाती, मुस्काती, कोमल पल्लव-सी…

*

तब रोम-रोम कम्पित होता
कुछ कहता कि हकला जाता
बस आँहें ही भर पाता था
उसकी चाहत का दीवाना,
फिर क्यों उससे घबराता था।

*

मेरे मन के मंदिर में…
उसकी प्रतिमा थी स्वर्ण जड़ित।
वह सच थी या थी स्वप्न-परी
वह कलाकार थी जादूगरनी।
पर जाने प्रकृति को क्या भाया
मिलन हुआ नहीं आई रजनी बाला।

*

मैं निशा में था…
मैं निशा में था मैं क्या जानुं
जब नींद खुली वह चली गई
तुम कहां गई, तुम कहां गई?
बस एक प्रश्न हीं उठता था
मैं मरा-मरा, बस रोता और हँसता था।

*

आज अभी तक उसकी निशानी
स्मरन कराती पल-पल की कहानी।
अब भी उससे स्वप्न में मिलता
सारी दशा का वर्णन करता…

*

मैं कहता रे मेरे मन को-
हो मत अधीर होगी अनुकम्पा
प्यार नहीं उपहार सही
पुनर्मिलन होगा अब इन्तजार नहीं
होगा ईश का उपकार यही
है आस यही हर सांस यही…

Author- Prabhat Kumar

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