दिए से मिटेगा न मन का अंधेरा
आज पर्वत के पीछे है ओझिल सवेरा।
मन को जलाओ तुम अबकी दीवाली
आंधी मे रमती हो दीपक की थाली।
अबकी दीवाली कहो स्वप्न होगा
दिलों के मिलन पर कोई जस्न होगा।
बदलते डगर हैं पहर कैसा होगा
किस्मत का अपना ये घर कैसा होगा?
घर को सजाऊं मैं अबकी दीवाली
दीपक जलाऊं हो पग-पग पे लाली
अबकी दिवाली पर अपनी हुकुमत
हर पल बजाता चलूंगा मैं ताली
पटाखों ने सबको जगाए रखा है
फुलझ्रियों से रात्री सजाए रखा है।
मेरा मौन मन भी मंदिर के भांति
आंधी में दीपक जलाए रखा है।
ओझिल सवेरा इसे मैं जगा दूं
दीपक से मैं आज हर दिल जला दूं
पीने की मनसा हुई आजकल तो
हरपल की खुशियां तुझ में लुटा दूं…
Author: Prabhat Kumar