अल्फ़ाज़ों मैं वो दम कहाँ जो बया करे शख़्सियत हमारी,
रूबरू होना है तो आगोश मैं आना होगा ,
यूँ देखने भर से नशा नहीं होता जान लो साकी,
हम इक ज़ाम हैं हमें होंठो से लगाना होगा……
जी इस नाचीज़ को वैसे तो पी के चौधरी कहते हैं
बहुत से मेहरबां लेकीन आलु-टमाटर की क़री कहते हैं।
मेरे ताऊ जहानाबाद के मशहुर डाकू थे
खुदा बख्शे उन्हें अपने जमाने के हलाकू थे।
औरंगाबाद का थाना मेरे नाना ने लूटा था
वो ग्यारह सेर का ताला उसी बंदे से टूटा था।
नहीं था चोर कोई शहर में दादा के पाए का
चुराकर घर में लाए थे कुत्ता वायसराय का।
मेरे मामूं के जाली नोट अमेरीका में चलते थे
हजारों चोर डाकू उनकी निगरानी में पलते थे
मेरे फूफा छ्टे बदमाश थे अपने जमाने के
खुदा बख्शे बहुत शौकीन थे वो जेलखाने के।
मेरे मौसा कभी न्यूयार्क में जेबें कतरते थे
अट्टठन्नी दे हंसी बेवाओं का दीदार करते थे।
मेरे भैया ब्रिटेन की रानी भगा लाए
और उनके यार बहनों को उठा लाए।
मेरे उस्ताद करते फोर ट्वेन्टी चीफ जस्टिस से
निकल बच के मगर वो आते हर डूबती कस्ती से|
बड़े वो लोग थे लेकीन ये बंदा भी नहीं कुछ कम
खुदा का फ़ज्ल है मुझ पर नहीं मुझको भी कोई गम।
इजाजत हो तो अब बंदा इशारे ही इशारे में
बता दे आपको तफ़सील से कुछ अपने बारे में।
बचपन में बताऊं भांगड़ा मैं खुब करता था
और डिस्को डांस में अव्वल ही रहता था।
स्कुलों मे लौटरी और तस्करी भी की
कालेजों मे पेपरों की खुब चोरी की।
कैन्टिन में पीते हैं जीभरकर जाम हम
कक्षा में सोते और करते आराम हम।
लोफ़री की लिडरी में इश्क का पहचान हम
है सितम पेशा मगर होता नहीं इमान कम।
कालेज सारी मानती मेरी फिल्मी दलीलों को
कराया मैने बाहर क्लास से पहूंचे फकिरों को।
हवाबाजों की धमकी खुब हमने भी पचाई है
रंगबाजों को काले रंग की पट्टी पढाई है।
न कोई ड्यूज भरता हूं न ट्यूशन फीस देता हूं
उल्टे खा पीकर के उनसे फण्डस लेता हूं।
जो दिन मैने गुज़ारे हैं, शानोशौकत से गुजारे हैं
जरा कुछ इन दिनों हीं मेरे गर्दिश में सितारे हैं।
मेरे कर्मों को करलो याद जो अपने ख्यालों मे
जमीं पे ना सही तो ख्वाब मे खेलोगे लाखों में।
~~*~~
Note: Initial few lines are prototype of a known urdu poetry.
Author: Prabhat Kumar
जी इस नाचीज़ को वैसे तो पी के चौधरी कहते हैं
बहुत से मेहरबां लेकीन आलु-टमाटर की क़री कहते हैं।
मेरे ताऊ जहानाबाद के मशहुर डाकू थे
खुदा बख्शे उन्हें अपने जमाने के हलाकू थे।
औरंगाबाद का थाना मेरे नाना ने लूटा था
वो ग्यारह सेर का ताला उसी बंदे से टूटा था।
नहीं था चोर कोई शहर में दादा के पाए का
चुराकर घर में लाए थे कुत्ता वायसराय का।
मेरे मामूं के जाली नोट अमेरीका में चलते थे
हजारों चोर डाकू उनकी निगरानी में पलते थे
मेरे फूफा छ्टे बदमाश थे अपने जमाने के
खुदा बख्शे बहुत शौकीन थे वो जेलखाने के।
मेरे मौसा कभी न्यूयार्क में जेबें कतरते थे
अट्टठन्नी दे हंसी बेवाओं का दीदार करते थे।
मेरे भैया ब्रिटेन की रानी भगा लाए
और उनके यार बहनों को उठा लाए।
मेरे उस्ताद करते फोर ट्वेन्टी चीफ जस्टिस से
निकल बच के मगर वो आते हर डूबती कस्ती से|
बड़े वो लोग थे लेकीन ये बंदा भी नहीं कुछ कम
खुदा का फ़ज्ल है मुझ पर नहीं मुझको भी कोई गम।
इजाजत हो तो अब बंदा इशारे ही इशारे में
बता दे आपको तफ़सील से कुछ अपने बारे में।
बचपन में बताऊं भांगड़ा मैं खुब करता था
और डिस्को डांस में अव्वल ही रहता था।
स्कुलों मे लौटरी और तस्करी भी की
कालेजों मे पेपरों की खुब चोरी की।
कैन्टिन में पीते हैं जीभरकर जाम हम
कक्षा में सोते और करते आराम हम।
लोफ़री की लिडरी में इश्क का पहचान हम
है सितम पेशा मगर होता नहीं इमान कम।
कालेज सारी मानती मेरी फिल्मी दलीलों को
कराया मैने बाहर क्लास से पहूंचे फकिरों को।
हवाबाजों की धमकी खुब हमने भी पचाई है
रंगबाजों को काले रंग की पट्टी पढाई है।
न कोई ड्यूज भरता हूं न ट्यूशन फीस देता हूं
उल्टे खा पीकर के उनसे फण्डस लेता हूं।
जो दिन मैने गुज़ारे हैं, शानोशौकत से गुजारे हैं
जरा कुछ इन दिनों हीं मेरे गर्दिश में सितारे हैं।
मेरे कर्मों को करलो याद जो अपने ख्यालों मे
जमीं पे ना सही तो ख्वाब मे खेलोगे लाखों में।
~~*~~
Note: Initial few lines are prototype of a known urdu poetry.
Author: Prabhat Kumar