तब कलियुग में,
स्वपनों का त्योहार हुआ।
कुछ हठकलियां, चंचल कलियां
प्रीत जगी जब-जब इनमें
मुझको इन सब से प्यार हुआ
बादल बरसे, बिजली कड़के अपनी यही कहानी से॥
हम कह्ते हैं प्यार की भाषा
भीगी-भीगी सी अभिलाषा।
पवन सरीखे बहते रहती
दिन को तपती शाम को वर्षा॥
क्या खूब हवा में मिश्रण है
गर्मी मे बहती शीत लहर
हम सुबह शाम चलते रहते
बस एक खोज़ और एक नज़र।
नज़रों से अब तूफान चले
मिश्रित वायु का पान मिले
क्या खूब नयन से जाम मिले
अविराम चलें न शाम मिले…
मिलती गर हैं जो पंखुड़ियां
रंगो की होली होती है
रंगीन शाम तब मनती है
यारों की टोली जमती है।
तुफान का डर अब क्या हमको
पीचकारी में सब रंग भर ली
क्या बिजली शोर मचाएगी
उसकी उर्जा से जी भर ली।
पर यार बता क्यों तु चंचल?
न स्थिर मन बहके पल-पल
तु उड़ने को पंख लगाता है
क्या आसमान से नाता है?
पर आज नहीं कोई उलझन
न दूर कोई तेरा दुस्मन,
बस तेरा एक इरादा है…
जो आसमान तक जाता है।
अब कुछ अपने मन की बोलूं
क्या मैं अपना स्वप्न टटोलूँ?
तेरे स्वप्नों मे तेरा वैभव हो
क्या मैं उसका आभूषण बन लूं?
तु देख रहा है स्वप्न निरंतर
मैं उसका वाहन बन जाऊ?
खुद अपनी स्वप्नों की हाला
क्या तेरे नयनों से पी जाऊं??
आम पुरूष मैं आम बात हूं,
मै बस सपनों का आभूषण।
मुझको रोका मत कर प्रिये!
लाल रंग से अंकित मैं कण!!