(A non-traditional poem which talks about the inefficiency of time in certain exceptional cases, sorry, no reasoning, just enjoy the poem 🙂 )
क्या वक्त बताएगा हमको?
हम वक्त के यु पाबंद नहीं।
फिर भी कुछ बातें होती है।
इन वक्त से हमको द्वन्द नहीं।
कभी वह मेरे हाथों में हो,
कभी हम कठपुतली होते हैं।
इन वक्त की यारों मार लगी
तो मत्स्य भी तितली होते हैं।
क्या वक्त बताएगा हमको?
हम वक्त के यु पाबंद नहीं।
इन वक्त की भांति स्मृतियाँ भी
उन दर्पण की भांति होती है,
जो आ जाये गर पास कभी तो
वक्त अलंकृत हो जाती है।
ख्यालों में ख्याल आया जब
वक्त में उलझा सवाल आया तब
क्यों हमको वक्त नाकारा है
या हमने वक्त को मारा है।
लो करलो अब स्वीकार यही
ऐ वक्त ! करो इकरार अभी।
तू सोच रहा मैं अचल अडिग
पर कैसे करूँ मैं इंकार अभी।
ऐ वक्त समंदर चलने दे,
लहरों पे मस्ती आती है।
डूबेगी नौका क्या अपनी
मदिरा से शक्ति आती है।
कुछ खेल-खेल में वक्त ढले
और उषा की आभा झलके।
मैं उपवन में बाग को निरखूँगा
औ तन,मन,धन से सींचूँगा !
ऐ वक्त ! न तू इतरा इतना।
अब तेरा वक्त भी आएगा।
पीने वाले होवेंगे मदहोश,
और पल में तू सो जायेगा !!
क्या वक्त बताएगा हमको?
हम वक्त के यु पाबंद नहीं।।
Author: Prabhat Kumar