तीव्र हवा और भारी घटा
हारे युद्ध तो गिरे नहीं, गिर कर जीते जंग !
मेरा अंतर्मन निर्गुण हुआ
कोकिल को मैं देख रहा
ध्वनि से चिंतन पूर्ण हुआ
मत रो, मत व्याकुल हो
चेतन ही सत्यार्थ नहीं…
तुम हो संयोग समापन का
कुछ कंकड़, कुछ चन्दन का
यथा व्यथा, मैं कारक हूँ
मैं स्वार्थी हूँ या सारथी हूँ
या हूँ मैं व्यर्थ विचारक !
मैं तो अनादि हर्षित ही हूँ !
एक चुम्बन तू खुद की ले
एक लेना जिज्ञासा का,
अम्बर पे अम्बर टूटे हैं,
ले मार्ग प्रसस्त जहाँ आशा !!
हारे युद्ध तो गिरे नहीं, गिर कर जीते जंग !
ऐसी किस्मत पीके की, करे बहुत सत्संग !!
लेखक: प्रभात कुमार (May 2016)